समाजिक भेदभाव पर कहावतों का खुलासा: Dr. Vikas Divyakirti के साथ सोच के गहराई में

समाजिक भेदभाव पर कहावतों का खुलासा: Dr. Vikas Divyakirti के साथ सोच के गहराई में | इस ब्लॉग में, हम विकास सर के साथ सामाजिक भेदभाव पर आधारित कहावतों का खुलासा करेंगे, जो न्याय के आदर्शों को उजागर करते हैं | we will delve into proverbs based on social discrimination with Vikas Sir, shedding light on ideals of justice.

समाजिक भेदभाव पर कहावतों का खुलासा Dr. Vikas Divyakirti के साथ सोच के गहराई में
समाजिक भेदभाव पर कहावतों का खुलासा: Dr. Vikas Divyakirti के साथ सोच के गहराई में

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डॉ. विकास दिव्यकीर्ति ने एक चर्चा में स्थानीय बोलियों और उनमें निहित सामाजिक पूर्वाग्रहों के बारे में गहराई से विचार किया। उन्होंने यह बताया कि कैसे लोक भाषाएं, मुहावरे और लोकोक्तियां अक्सर सामाजिक असमानताओं और पूर्वाग्रहों को स्पष्ट रूप से प्रकट करती हैं, विशेषकर महिलाओं, दलितों और अल्पसंख्यकों के खिलाफ। उदाहरण के लिए, “कहां राजा भोज, कहां गंगू तेली” जैसे मुहावरे में तेली समुदाय को निचले स्तर का दिखाने की कोई आवश्यकता नहीं थी, यह केवल सामाजिक भेदभाव को बढ़ावा देता है।

डॉ. दिव्यकीर्ति ने इस बात पर जोर दिया कि बोलचाल की भाषाओं में पितृसत्ता और सामाजिक वर्चस्व के भाव कैसे प्रकट होते हैं। उन्होंने कुछ और मुहावरों का उदाहरण दिया, जैसे “जोरू जमीन जोर का, नहीं तो किसी और का,” “बंगी की पहुँच नाली तक,” “नीच जात लती आए अच्छा,” और “कहने सो कुमार गधे नहीं चढ़ता।” ये सभी कहावतें समाज में व्याप्त विभिन्न प्रकार के भेदभाव को दर्शाती हैं। उन्होंने यह भी बताया कि “बुरी नजर वाले तेरा मुँह काला” जैसे मुहावरे रंगभेद के विचारों को प्रमोट करते हैं, भले ही ऐसा कहने वालों का इरादा न हो।

इसके बाद, चर्चा का केंद्र राजस्थानी बोली को भाषा का दर्जा देने के मुद्दे पर आ गया। डॉ. दिव्यकीर्ति ने इस विषय पर पक्ष और विपक्ष में दिए गए तर्कों को प्रस्तुत किया। समर्थक तर्क देते हैं कि राजस्थान की भाषा के प्रयोगकर्ता काफी बड़ी संख्या में हैं, लगभग तीन-चार करोड़ लोग इसे बोलते हैं। इसके अलावा, राजस्थानी साहित्य की प्रचुर मात्रा में उपलब्धता भी एक मजबूत तर्क है, जिसमें मोहनौत, नैंसी, सूर्यमल मिश्रन और विजेदान देथा जैसे प्रमुख साहित्यकार शामिल हैं।

हालांकि, विपक्षी तर्क देते हैं कि राजस्थानी कई बोलियों में विभाजित है, जैसे मारवाड़ी, मेवाड़ी, ढुंढाड़ी, और मालवी। इस विभाजन के कारण एक मानकीकृत भाषा का दर्जा देना कठिन हो जाता है। इसके अलावा, राजस्थानी की लिपि देवनागरी है, जो कि मैथिली जैसी भाषाओं से तुलना में इसे एक अद्वितीय पहचान नहीं देता। विपक्षी यह भी सवाल उठाते हैं कि भाषा का दर्जा देने से क्या व्यावहारिक लाभ होगा, खासकर आम लोगों के लिए। वे मानते हैं कि इससे केवल अकादमिक स्तर पर शोध और अध्ययन की सुविधा होगी, लेकिन इसका व्यापक जनसमूह पर कोई खास प्रभाव नहीं पड़ेगा।

डॉ. दिव्यकीर्ति ने आगे सिविल सेवक के रूप में सामाजिक मुद्दों से निपटने के तरीकों पर अपने विचार साझा किए। उन्होंने बताया कि किसी भी राजनीतिक दबाव के बावजूद, संविधान का पालन करना सबसे महत्वपूर्ण है। उन्होंने अक्षय तृतीया के दिन बाल विवाह रोकने के उदाहरण से यह स्पष्ट किया कि सिविल सेवकों को कानूनी प्रावधानों को लागू करने में कोई समझौता नहीं करना चाहिए। उन्होंने स्थानीय समुदाय के नेताओं, बुद्धिजीवियों और सोशल मीडिया का उपयोग करके जनजागरूकता फैलाने की बात कही, ताकि लोग बाल विवाह जैसी कुप्रथाओं के खिलाफ खड़े हो सकें।

अंत में, एक काल्पनिक स्थिति में, जहाँ एक शक्तिशाली अपराधी बार-बार जघन्य अपराध करता है और कानूनी प्रक्रिया से बच निकलता है, डॉ. दिव्यकीर्ति ने कानूनी और नैतिक आचरण के महत्व पर जोर दिया। उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि बिना किसी कानूनी प्रक्रिया के किसी को सजा देना संविधान और उनके व्यक्तिगत मूल्यों के खिलाफ है। भले ही जनता का भारी दबाव हो, उन्होंने यह सुनिश्चित करने की बात कही कि कानून का पालन हो और न्यायिक प्रक्रिया के माध्यम से ही दोषियों को सजा दी जाए।

डॉ. दिव्यकीर्ति की बातें संविधान के प्रति उनकी दृढ़ प्रतिबद्धता और न्याय के सिद्धांतों के प्रति उनके समर्पण को प्रदर्शित करती हैं। उनका दृष्टिकोण यह दर्शाता है कि एक सिविल सेवक के रूप में, उन्हें न केवल कानून का पालन करना चाहिए, बल्कि सामाजिक सुधार और जनजागरूकता के माध्यम से समाज में सकारात्मक बदलाव लाने का प्रयास भी करना चाहिए।

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