हिंदी बोलने में क्यों आती है शर्म? Dr. Vikas Divyakirti की राय

हिंदी बोलने में क्यों आती है शर्म? – Dr. Vikas Divyakirti की राय | Why Do People Feel Embarrassed Speaking Hindi? – Dr. Vikas Divyakirti. क्या आपको हिंदी बोलते समय शर्म महसूस होती है? डॉ. विकास दिव्याकीर्ति इस विषय पर अपने दृष्टिकोण को साझा करते हैं और कैसे इसे दूर किया जा सकता है। Do you feel embarrassed when speaking Hindi? Dr. Vikas Divyakirti shares his perspective on this topic and how to overcome it.

हिंदी बोलने में क्यों आती है शर्म Dr. Vikas Divyakirti की राय
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विकास दिव्यकीर्ति इस बात पर जोर देते हैं कि भाषाई पिछड़ापन व्यक्तिगत नहीं बल्कि सामाजिक मुद्दा है। यह आपकी, मेरी या किसी एक व्यक्ति की समस्या नहीं है, बल्कि उस सामाजिक माहौल की समस्या है जो बार-बार आपको आपकी भाषाई असमानताओं की याद दिलाता है। जब आप मानक हिंदी बोल लेते हैं और कोई अन्य व्यक्ति क्षेत्रीय बोली बोलता है, तो समाज उस व्यक्ति को बार-बार उसकी असमानता का एहसास कराता है। यह केवल भाषाई हीनता का नहीं, बल्कि समाज में भाषाई श्रेष्ठता के प्रतीकों का भी मसला है।

वह एक उदाहरण देकर समझाते हैं कि किस प्रकार ग्रामीण इलाकों के लोग जब कोई आधिकारिक पत्र लिखना चाहते हैं, तो वे अक्सर जटिल और विद्वतापूर्ण शब्दों का उपयोग करते हैं। इसका उद्देश्य सामने वाले को प्रभावित करना होता है, भले ही वे स्वयं उन शब्दों को पूरी तरह से न समझते हों। यह “भाषाई आतंकवाद” का एक रूप है, जहाँ लोग परिस्थितियों के अनुसार कभी शिकार तो कभी शिकारी बन जाते हैं। इस तरह की परिस्थितियों में, मानक हिंदी या अंग्रेजी बोलने वाले व्यक्ति अपने आप को श्रेष्ठ मानते हैं और अन्य लोगों को हीन समझते हैं।

दिव्यकीर्ति अपने व्यक्तिगत अनुभव का वर्णन करते हैं, जब उन्होंने अपने परिवार के बच्चों के साथ “डम्ब शेराड्स” खेला। इस खेल में इशारों के माध्यम से शब्द या वाक्य समझाने होते हैं। दिल्ली के बच्चे, जो अच्छी शिक्षा प्राप्त कर रहे थे, अपनी कोड भाषा का उपयोग कर जल्दी और प्रभावी ढंग से संवाद कर लेते थे। उनके पास एक पूरे के पूरे कोड लैंग्वेज थी, जिससे वे आसानी से एक-दूसरे को समझा सकते थे। इसके विपरीत, दिव्यकीर्ति और उनके ग्रामीण पृष्ठभूमि के साथी, साधारण शब्दों को भी समझाने में संघर्ष करते थे। यह घटना शहरी और ग्रामीण पृष्ठभूमियों के बीच भाषाई सुविधा और आत्मविश्वास की असमानता को दर्शाती है।

वह बताते हैं कि बच्चों ने अपने खेल में भी विभिन्न भाषाओं के लिए अलग-अलग संकेत विकसित कर लिए थे। उदाहरण के लिए, फिल्मों के नाम पर आधारित खेल में, पहले इशारा करना होता था कि फिल्म का नाम कितने शब्दों का है और किस भाषा में है – हिंदी या अंग्रेजी। बच्चों का एक विशिष्ट इशारा था जिससे वे इंगित करते थे कि नाम हिंदी में है या अंग्रेजी में। दिव्यकीर्ति को यह प्रक्रिया अत्यंत जटिल और अनावश्यक लगी। उन्होंने महसूस किया कि यह बच्चों की अपनी सहज भाषा की बजाए, एक कृत्रिम और बोझिल कोड भाषा थी, जो उनकी शिक्षा और सामाजिक परिवेश का परिणाम थी।

दिव्यकीर्ति इस बात पर भी विचार करते हैं कि हमारे समाज में विभिन्न भाषाओं और बोलियों के प्रति जो दृष्टिकोण है, वह कितना महत्वपूर्ण है। बच्चों का खेल एक छोटे स्तर पर यह दिखाता है कि कैसे समाज में विभिन्न भाषाओं के प्रति भेदभाव और पूर्वाग्रह मौजूद हैं। उदाहरण के लिए, हिंदी और अंग्रेजी के लिए अलग-अलग संकेत होना यह दर्शाता है कि अंग्रेजी को एक विशिष्ट और उच्चतर भाषा माना जाता है, जबकि हिंदी को सामान्य भाषा की श्रेणी में रखा जाता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि भाषा केवल संचार का माध्यम नहीं है, बल्कि सामाजिक स्थिति और पहचान का प्रतीक भी है।

दिव्यकीर्ति अंत में इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि भाषाई असमानता और संवेदनशीलता हमारे समाज में गहरे पैठी हुई हैं। भाषा के प्रति हमारा दृष्टिकोण केवल व्यक्तिगत नहीं, बल्कि सामाजिक है और यह दृष्टिकोण हमारे रोजमर्रा के जीवन में परिलक्षित होता है। इसलिए, यह महत्वपूर्ण है कि हम भाषा के प्रति अपने दृष्टिकोण को बदलें और सभी भाषाओं और बोलियों को समान सम्मान और महत्व दें। भाषा की विविधता को स्वीकारना और उसका सम्मान करना ही समाज में वास्तविक समानता और समरसता को स्थापित करने का मार्ग है।

इस प्रकार, विकास दिव्यकीर्ति का भाषाई संवेदनशीलता और सामाजिक मुद्दों पर विचार हमें यह समझने में मदद करता है कि भाषा केवल शब्दों का संकलन नहीं, बल्कि हमारी संस्कृति, पहचान और सामाजिक संरचना का महत्वपूर्ण हिस्सा है।

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